मुझे रोटी बनानी है
रविवार की शांत, सुंदर,आरामदायक सुबह थी .हम सभी एक साथ बैठे चाय की चुस्की के मजे ले रहे थे .मुझे मम्मीजी और तृप्ति दीदी के साथ बैठने का मौका बहुत ही कम मिलता है क्यूंकि बाकी दिनों तो ऑफिस की भागमभाग बनी रहती है.तृप्ति दीदी ने मम्मीजी से पूछा ,"मम्मीजी आज नास्ते में क्या खाना पसंद करेंगी?"
मम्मीजी ने कहा"आज आलू के पराठे बना लो "
मैंने कहा "ठीक है, आज मै बनती हूँ पराठे ,आज मेरी छुटी भी है तो मै सभी को अपने हाथो से बनाकर खिलाऊँगी "
इतना सुनते ही मम्मीजी ने कहा"साक्षी,नहीं बेटे,आज तुम रहने दो,आज तो तुम्हारे पापा ,सुनीति,प्रदीप सभी घर पर है ,तुम इतना नहीं कर पाओगी.हम फिर कभी तुम्हारे हाथ के बने पराठे खायेंगे.यह सुन कर वाही खड़ी मेरी जेठानी तृप्ति दीदी ने कटु मुस्कान के साथ मुझे देखा ,मुझ से वो मुंह से तो कुछ नहीं कहती लेकिन मुझे पता था की उनकी कटु मुस्कान के पीछे मुझे नीचे दिखने की उनकी तम्मना पूरी हो रही थी.वो बिना शब्दों के बाण चलाये यु ही हर बार मेरे दिल को छलनी कर देती थी ,मानो कह रही हो देखा ,तुम होगी डॉक्टर साक्षी भारती लेकिन इस घर की डोर तो मेरे मेरे हाथ में है.
मैंने भले ही उन्हें दीदी का दर्जा और सम्मान दिया था लेकिन वो मुझे हमेशा देवरानी ही समझती थी इसका कारण शायद मेरा डॉक्टर होना था ,जिससे वो खुद को नीचा समझ कर मुझे हर वक्त नीचा दिखने की कोशिश में लगी रहती थी या शायद इसकी वजह यह भी हो सकती थी की वो अपनी किसी रिश्ते की बहन से अभिषेक की शादी कराना चाहती थी लेकिन अभिषेक ने अपने जीवन साथी के रूप में मुझे चुना.
मै जब शादी करके इस घर में आई थी तो सभी सदस्यों ने मुझे बड़े प्यार और इज्जत से स्वीकार किया था.मुझे शादी की अगली सुबह अब भी याद है .जब मै सुबह -सुबह उठी.मुझे शुरू से ही मम्मी ने सुबह जल्दी जागने की आदत डाल राखी थी इसलिए आदतन मेरी आँखे खुल गई.मुझे उस वक्त बहुत तेज भूख लगी थी ,सभी सो रहे थे इसलिए मैंने किसी को जगाना ठीक नहीं समझा और फ्रीज से दूध निकला और गरम करके पीने लगी .अभी गिलास आधा भी नहीं हुआ था की तृप्ति दीदी आ गई ,इससे पहले की मई उनसे अभी ये पूछती की क्या आप भी दूध पियेंगी ?उन्हाने सारे घर के लोगो के आगे मेरा तमाश बना दिया.सब को जोर -जोर से बोल के उठा दिया हाय राम ये साक्षी ने क्या किया ?बिना किसी से पूछे ,बिना किचन की पूजा हुए दूध पी लिया ,इसने तो बड़ो ओ बिना खिलाये खुद खा लिया ,बिना नहाये किचन में चली आई कम से कम पूजा तक तो रुक जाती .मै बिलकुल अचंभित खडी थी .मुझे कसूरवार ठहराया जा रहा था लेकिन क्यों ?यह बात मेरी समझ में नहीं आ रहा था ,मै रोने लगी तभी मम्मी जी ने आकर तृप्ति दीदी को चुप कराया और कहा "कोई बात नहीं बेटा ,तुम अपने कमरे में जाओ "मै अपने कमरे में आ गई ,अभिषेक से मैंने पूछा ,"मेरी गलती क्या है?"वो हंसने लगे और कहा "गलती तुम्हारी नहीं इस नए परिवेश की है जिसकी जानकारी मैंने तुम्हे पहले नहीं दी ,दरअसल नई बहु के रसोई में जाने से पहले कुछ पूजा होती है ,लेकिन अब तुम अब इन बेस कीमती मोतियों को यु न बहाव और आराम करो , पूजा हो जाएगी तुम परेशां मत हो.
तब से लेकर आज तक तृप्ति दीदी ने मेरी इस कमी को अपना हथियार बना रखा है.वो मुझे कभी शब्दों से कभी कुछ नहीं जताती है लेकिन अपनी विजय मुस्कान से मुझे अपमानित करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ती .वो चाहती भी नहीं की मै रसोई में जाऊ ताकि वो अपने साम्राज्य की अकेली सम्राज्ञी बनी इतराती रहे .मै कभी हाथ बताने की कोशिश भी करती तो दी का यही जबाब होता "तुम रहने दो न जब अपने घर में नहीं किया तो अब यहाँ क्यों तकलीफ उठाओगी?मै हूँ न !कभी कुछ कमी होतो मुझे या सेवकराम को कह दिया करो "मै किचन से आ जाती थी परन्तु मन में दवंद चलता रहता था .मै अपमानित नहीं होकर भी ग्लानी महसूस करती रहती थी .मै घर में रह कर भी घर की सदस्य की जैसी नहीं महसूस कर पाती थी लेकिन यह भी नहीं समझ पा रही थी की इसमे गलती किसकी और क्या है ?कहाँ चुक हुई है और इसे कैसे पाटा जाये .मेरे मम्मी पापा दोनों डॉक्टर थे इसलिए मैंने भी बचपन से ही डॉक्टर बनने के अलावा और कुछ सोच ही नहीं .मम्मी को भी कभी कभी ही किचन का काम करते देखा था इसलिए मेरी ललक कभी उस तरफ उभरी ही नहीं तब मुझे भी कहाँ पता था की किचन में जाना और रोटी नहीं बनाना आना मुझे इतना उपेक्षित कर देगा .मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं थी.पर अपने आप में ही मुहे ऐसा लगता था जैसे कोई शहरी गाव में जाकर "हौआ" बन जाता है या कोई ग्रामीण शहर में आकर अलग थलग पड़ जाता है ,जबकि दोष ग्रामीण या शहरी होने का नहीं होता है बल्कि नए परिवेश का होता है .मै जब भी अभिषेक से इस बात पर विचार विमर्श करने की कोशिश करती तो उसका यही कहना होता "यार ,यूमे तो खुश होना चाहिए की तुम्हरी कमियों के लिए कोई तुम्हे ताना तो नहीं मारता ,खुश रहा करो "
पर मै कैसे खुश रह सकती थी जब मुझे अपने ही स्थान पर अपनी जड़ो को फ़ैलाने में मुश्किल हो रही थी .मै मम्मी -पापा को भी परेशान नही करना चाह रही थी इसलिए मैंने अपनी सहेली हेमा से इस विषय में बात की .मैंने कहा "क्या रोटी बनाना आना इतना जरुरी है ?"
हेमा ने कहा "जब हम दसवी की परीक्षा देते है तो क्या किसी एक विषय में उतीर्ण होना काफी होता है ?नहीं न?हर विषय में पास होने लायक तो अंक चाहिए ही होता है न ,उसी तरह जीवन में हर पहलू पर थोड़ी -बहुत तो पकड़ होनी ही चाहिए और रोटी तो जीवन का आधार है,वैसे इसमे तुम्हारा या हमारा दोष नहीं है यह तो परिवेश और माहौल में हो रहे बदलाव का नतीजा है "
हेमा ने मुझे कुकरी क्लास ज्वाइन करने की सलाह दी .मैंने भी निश्चय किया की कोई कुकरी क्लास ज्वाइन आरके बिल्कुल परफेक्ट आलू का परांठा बनाउंगी.आखिर मै एक औरत हूँ ,शक्ति का स्रोत हूँ ,मै किसी से कैसे पीछे रह सकती हूँ ?और फिर भविष्य में मुझे भी तो अपनी बेटी को सिखाना होगा .फिर मै एक गहरी और निश्चिंत नींद सो गई क्यूंकि कल जल्दी उठ कर सूरज की नई किरण से अपना दिन शुरू करना था