Saturday, May 12, 2012

MERI JIMEDARI

मेरी माँ बहुत परेशान हो रही  थी .बार बार मुझे मेरे घर जाने की जिद कर रही थी .उनका कहना था की वो तो अपनी जिंदगी जी चुकी है और बची जिंदगी भी जैसे तैसे तो गुजर ही जाएगी .मै उनकी वजह से अपना आने वाला समय क्यों ख़राब  कर रही हूँ.वह किसी वृद्ध आश्रम में जाने की बात कर रही थी और मै किसी भी कीमत पर इस बात के लिए राजी नहीं थी
मै एक शादीशुदा ,दो बच्चो की माँ हूँ.मेरे पति एक बहुत बड़ी कंपनी में मैनेजर की पोस्ट पर है ,मेरे बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ते  है .मेरे घर में हमारे साथ सास -ससुर भी रहते है.मेरी सबो के प्रति जो जिमेद्दारी है,उसमे मैंने कभी कोई कमी नहीं होने दी ,लेकिन मैंने हमेशा उस घर में एक खालीपन को जिया है ,ऐसा लगता है ,जैसे किसी कैनवस  पर हर तरह रंग भरा हुआ है ,लेकिन कोई एक कोना जाने -अनजाने में सदा रंगहीन रह जाता   है जो समय के साथ कैनवास    रूपी जिंदगी पर हावी होता जा रहा है .वह सादापन कुछ और नहीं मेरे जीवन में प्यार की कमी  का सूनापन था .ऐसा लगता था जैसे जिंदगी एक यंत्र की तरह चल रही है जहाँ भावनाओ की कोई जगह ही नहीं थी,जिंदगी एक रूटीन से ज्यादा कुछ नहीं रह  गया  था 
हम दो भाई -बहन थे,हमारे पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था ,जब हम बहुत छोटे थे.तब मेरी माँ ने बहुत हिम्मत से काम लेते हुए हमें और खुद को संभाला और जिंदगी की गाड़ी को आगे बढाया.
मुझे एन .टी .टी.का और भाई को ऍम .बी ए की उतीर्ण पढाई करवाई  .मै एक स्कूल में शिक्षिका बन गई और भाई को एक बहार की कंपनी से अच्छी ऑफर मिल गई और भाई   बाहर सैटल  हो गया 
मम्मी में मेरे लिए भी रिश्ते देखने लगी इसी बीच उन्हें आशुतोष पसंद आ गए .फिर हमारी  सगाई ,शादी  और शादी में हुए ढेरो खर्च और और फिर अंत में मेरी मेरे घर से विदाई और मम्मी रह गई अकेली और तनहा .शुरू शुरू में तो वो कभी किसी मामा तो कभी मौसी के पास चली जाती थी या उन में से ही कोई आ जाया करता था .मेरा आना जाना अपने ही घर में मेहमानों   की तरह   हो गया था .बस पर्व त्यौहार पर हफ्ते डेढ़ में सिमट कर रह गया था ,धीरे धीरे ये सिलसिला भी जिमेदारियो की भेट चढ़ कर क्षीण होता गया .हलाकि मेरा भाई मम्मी को बार बार अपने पास बुलाता पर मम्मी को वहां जाना मंजूर नहीं था .मम्मी को कोई तकलीफ न हो इसलिए वो एक मोटी रकम हर महीने मम्मी को भेजता था .सब कुछ ठीक चल रह था की अचानक मम्मी बहुत  बीमार हो गई ,अब उन्हें  हर  वक्त किसी न किसी के साथ की सकत जरुरत थी .हमने नौकर या मेड रखने  की बात की तो मम्मी डर गई ,साफ़ साफ़ मना कर दिया क्यूंकि आजकल आये दिन नौकरों और मेड के द्वारा  कत्लो आम और लुट पाट की घटना से तो हम सब भली  भाती वाकिफ थे इसलिए मम्मी की बहुत मन मनुआल के बाद मै अपने ही घर में लेके आ गई 
उनको  डॉक्टर से दिखाया ,समय से देखभाल ,दवाई ,खाना ने अपना असर  दिखाया और मम्मी जल्दी ही ठीक हो गई .थोडा समय सही से गुजरा लेकिन फिर माजी ,आशुतोष के व्यवहार में मुझे बदलाव महसूस होने लगा .जैसे आशुतोष पहले ऑफिस से आते ही मम्मी से मिलने आते ,उनका हाल-चाल पूछते या माजी जैसे पहले सुबह की सैर मम्मी के साथ करती  थी अब वो अकेले ही जाने लगी,हाँ लेकिन बच्चे बिलकुल पहले ही जैसे थे,हर वक्त नानी नानी करते ,चुटकुले सुनाते और हँसते हँसाते रहते .मेरी मम्मी को भी इस बदलाव का अहसास होने लगा था वो अब अपने घर जाने की जिद करने लगी थी .उनकी अनुभवी आँखों ने सब कुछ समझ लिया था ,इसलिए वो लगभग जबरदस्ती ही अपने घर चली गई 
मुझे हर वक्त चाहे न चाहे मम्मी की चिंता होती  रहती थी .मैंने आखिर एक दिन आशुतोष से बात की कि क्यों न हम मम्मी को अपने पास ही रख ले .ये सुनते ही तो आशुतोष तो बिलकुल बिदक गए और  बोलने लगे गरिमा तुम्हे हो क्या गया है ?हम मम्मीजी को यहाँ कैसे रख सकते है ?हमारे पास  कोई एक्स्ट्रा कमरा भी तो नहीं है .बच्चो  के कमरे में रहने पर बच्चो की पढाई में बाधा  होगी और फिर आते जाते मेहमान भी बोलने से बाज नहीं आते है , कहते है "अरे आशुतोष क्या तुम्हारी मम्मीजी अब यही रहती है ?"ऐसा कोई निर्णय हम कैसे ले सकते है ?"
मुझे ये सुनकर इतना धक्का लगा की मेरे मुह से एक शब्द नहीं फूटा.आशुतोष कितने स्वार्थी है ,इन्हें सबो की फ़िक्र है सिवाए मेरी भावनाओ के और मेरी माँ दर्द के अहसास के.मै कुछ बोल नहीं सकी ,बस मेरी आँखों से बनके मेरा दर्द बहे जा रहा था .आशुतोष तो करवट लेकर सो गए और मै पता नहीं रोते रोते कब सोई .सुबह देर से आँखे खुली ,इस वजह से सारा रूटीन गड़बड़ हो गया .ऐसे ही सुबह इतना कम समय होता है की साँस लेने की भी फुर्सत नहीं होती है 
सुबह  10 .30  के करीब फ़ोन की घंटी बजी 
फोन  आशुतोष ने ही उठाया ,पता चला की  मम्मी छत की सीढियों से गिर गई है .उनके पैर और हाँथ में फ्रैक्चर है ,प्लास्टर चढ़ेगा 
आशुतोष मुझे हॉस्पिटल छोड़ कर ऑफिस चले गए.मुझसे मम्मी की हालत देखी नहीं जा रही थी .मै अपने   आप को ही कोसे जा रही थी की मैंने मम्मी  को घर जाने ही क्यों दिया ? अगर वो मेरे घर होती तो आज ये हालत नहीं होती 
करीब दो महीने के इलाज के  बाद मम्मी ठीक हो गई .मैंने आशुतोष के सामने साफ साफ कह दिया की मम्मी अब हमारे ही साथ रहेंगी. वह तो बिलकुल बिरफ पड़े कहने लगे ये क्या बात हुई ?तुम बेटी हो ,ये फर्ज तुम्हारे भाई का है की वो अपनी माँ का ख्याल रखे ,लेकिन खुद तो वो विदेश में जा बैठा  है और मुस्किल हमारे लिए छोड़ गया है  .ये सुनते ही तो मेरे तन बदन में आग लग गई .पर मै रोते हुए मम्मी के पास आ गई .मम्मी की तजुर्बेदार आँखों ने बिना कुछ कहे ही सब कुछ भाप लिया .इस बार मैंने मन ही मन ठान लिया था की कुछ भी हो जाये मै मम्मी को अकेले नहीं छोडूंगी .मन ही मन यही सोच रही थी की मम्मी ने कभी बेटा बेटी में फर्क नहीं किया तो आज वो सिर्फ बेटे की माँ कैसे रह गई ?अगर वो चाहती तो पापा के देहांत के बाद शादी कर सकती थी,आखिर वो भी खुबसूरत और जवान थी  ,हमें होस्टल में डालकर अपना फर्ज पूरा कर सकती थी .उनके लिए वो वक्त कितना मुस्किल रहा होगा ,जब धनोपार्जन के साथ साथ हमें भी पाल पोस रही थी .लेकिन जब मम्मी ने कभी अपने लिए नहीं सोचा तो आज मै कैसे सिर्फ बहु ,बीबी या माँ बनके रह जाऊ? मैंने एक निश्चित निर्णय के साथ अपना कदम उठाया .मै घर गई ,जरुरत भर का सामान लिया और चल पड़ी .आशुतोष मुझे देखते  ही खरी खोटी सुनाना शुरू कर दिया "अरे तुम कैसी माँ हो,जो अपने ही बछो को छोड़ कर जा रही हो "मैंने बोला "वहां स्कूल की बस नहीं आ सकेगी इस लिए उन्हें साथ नहीं ले जा सकती ,और फिर न ही तो ये दूध पीते बच्चे है और न ही ये घर कोई  जंगल  है. फिर आशुतोस कहने लगे "क्या आज तुम्हारे लिए तुम्हारी माँ इतनी महत्वपूर्ण हो गई की उनके लिए तुम अपना पति,घर सब कुछ छोड़ने को तैयार हो गई ?"
फिर तो जैसे मेरे अन्दर का गुब्बार ही फुट पड़ा ,कौन सा घर कैसा पति?जिस घर में रहने के लिए हर वक्त मुझे दूसरो की इजाजत की जरुरत हो ?और कैसा पति जिसको हर किसी की चिंता है सिवाए मेरे? तुमने कभी मेरी इच्छाओ  को जाना ?कभी मेरी जरूरतों को समझा ?कभी मेरी भावनाओ की इज्जत की ,अरे तुम्हे तो ये भी नहीं पता की मै कब दुखी हूँ और किस बात से खुश होती हूँ ?क्या कभी तुमने अपने फैसले में मुझे शामिल किया ?कभी तुमने मेरी पसंद नापसंद को ताजबो दिया ?नहीं तुम्हे  तो समय से काम करने वाली एक मशीन समझा मुझे .आशुतोष कहने लगे उनका बेटा तो है न ,वहां क्यों नहीं चली जाती क्या सारी जिमेदारी तुम्हारी ही है ? मैंने कहा बहार के देशो में टाइम बोंड होता है इतना तो आपको पता है और उसको आते आते समय लगेगा और मम्मी वहां जाना नहीं चाहती इसलिए मै ही मम्मी के पास रहने जा रही हूँ .
आशुतोष ने कहा"कम से कम इन बच्चो का तो सोचो ,इनका क्या होगा?"
मैंने कहा "क्यों मैंने जिसे पैदा किया वो मेरी जिमेदारी है लेकिन जिसने मुझे पैदा किया उसके प्रति मेरी कोई जिमेदारी नहीं है ?"इतना कहने के बाद मै हॉस्पिटल आ गई .मम्मी को हॉस्पिटल से डिस्चार्ज कराया और घर आ गई .मेरा  सामान  देखते   ही वो समझ गई इसलिए वो परेशां थी और मुझे समझा रही थी मै अपने घर चली जाऊ .वो ये नहीं चाहती थीउनकी वजह से मेरी जिंदगी में कोई परेशानी आये  लेकिन ये तो दुनिया की कोई माँ नहीं चाहेगी .परन्तु मेरी क्या जिमेदारी थी और मुझे क्या करना था ,ये सोचना और उस पर अमल करना मेरा काम था 
मुझे नहीं पता की लोग क्या कहेंगे ,परन्तु मै संतुष्ट हूँ और मेरी नज़रो में संतुष्ट इन्सान  ही  सम्पूर्ण और खुश होता है .